सन 1979 में तरीका बाबू इस दुनिया को अलविदा कह गये। तरीका बाबू यानी नृपत
नरायण सिंह यानी मेरे नाना जी। इधर वे बहुत याद आ रहे हैं। हालांकि वे याद
करने के लायक कभी नहीं रहे, फिर भी याद आते हंै। अपनी मौत के समय वे यही
कोई 80 वर्ष के आसपास रहे होंगे। अपने अन्तिम समय में लोग कहते हैं कि वो
पागल हो गये थे। जंगलों से सूखी लकडि़याँ बीनने लगे थे। यह उनकी नियति थी
और शायद उनका कर्म भी। मैंने जब आखिरी बार उन्हें देखा था वे एकदम जपला हो
गये थे। फिर भी उनके चेहरे पर जो कान्ति थी, जो चमक थी, जो लालिमा थी वह
मेरी माँ और मामा को छोड़कर मैंने कभी किसी में नहीं देखी। नाना अपने समय
के बेजोड़ बेइमानों में से थे जिसकी घोषणा वे खुद किया करते थे। उन्होंने
अपने तरीके से जमीने ईजाद कीं। दारू के ठेके चलवाये और सरकारी महकमें में
अपनी हनक कायम की। उनके सामने शायद ही उनका कोई विरोधी रहा हो जो लूटा-पिटा
न हो। यूं तो अपने टक्कर में पूरे अम्बेडकर नगर जनपद में वे तीन लोगांे को
ही बेइमान मानते थे और वे तब कहा करते थे कि इस इलाके में सिर्फ तीन
बेइमान हैं, मेरे अलावा दो और। लेकिन उन्हें इसके बावजूद बेहद क्षोभ था कि
आने वाले दिनों में हर इन्सान में निश्चित रूप से एक बेइमान जरूर होगा। कम
से कम अपनी बहुलता के साथ। नाना पक्के सामंती थे। 30-32 हलों की खेती थी।
और सैकड़ों गाय, भैसे उनके पशुशाला में थीं। तमाम अपनी जिद्दों और
ज्यादतियों के बावजूद उनमें एक ऐसा गुण था कि जिसके नाते मैं उन्हें अक्सर
याद करता हूँ। वे गाँव में हुई किसी भी मौत पर मातमपुर्सी करने जरूर जाते
थे। इतना ही नहीं, बिना जाति, धर्म और सम्प्रदाय का भेद किये वे शव को अपना
कंधा जरूर देते थे और गाँव के सरहद तक पहुंचाने में उन्होंने न अपना
अहंकार आड़े आने दिया और न ही अपनी जाति।
लगभग तीन दशकों में नाना ने
जो कहा था, वह अक्षरशः सच हुआ। पूरा देश उस सच्चाई से रूबरू हो रहा है। तब
मैंने किसी को भी नाना जैसों के प्रति इतने गुस्से से भरा नहीं पाया था
जितना कि आज। पूरी व्यवस्था से हम इस कदर क्षुब्ध और क्रोधित हैं कि हमारी
नसें पिघलने लगती हैं। हमारा रक्तसंचार बढ़ जाता है। और हम अनायास ही बेबात
झगड़ पड़ते हैं। यह गुस्सा आखिर आया कहा से! इसका जवाब बहुतों के पास होगा
जरूर। पर अधिकांश लोगों ने उस आयाम को एकदम नजरअंदाज किया जहां से हम
देखना चाहते हैं। हम लगातार पूरी व्यवस्था को गाली देते हंै। उलाहना देते
हंै। उन्हें चोर और भ्रष्टाचारी कुछ भी कह देते हैं। यह कुण्ठा जायज है और
होना भी चाहिये। कोई देश, कोई समाज, कोई व्यक्ति जब कुण्ठा का सकारात्मक
प्रयोग करता है तो बदलाव का प्रतीक बन जाता है और तभी बदलाव होता भी है। पर
क्या ऐसा है। इसे भी समझना होगा। हम अक्सर बातचीत में यह सुनते हैं कि
आखिर करें क्या। क्या यूं ही मरते रहंे। क्या यूँ ही लुटते रहें या यूँ
लुटाते रहें। तो भाई! समस्या तो ये आप ही की पैदा की हुई है और आप ही इससे
उबर पायेंगे। इसके लिये ना तो अमेरिका आयेगा और न ही पाकिस्तान। इसके लिये
हमें अपने घरों से शुरुआत करनी होगी। आखिर ऐसी स्थिति आई क्यों और कैसे !
कार्य-कारण को समझने की कोशिश हुई क्या। आखिर देश के लूटने वाले भी यहीं के
हंै ना। जनता अक्सर पूछती है कि हम लूटने वाले का कुछ बिगाड़ क्यों नहीं
पाते हैं। मैं उन्हें धैर्यपूर्वक समझाना चाहता हूँ कि आखिर हम किसी के
बिगाड़ने की सोचे ही क्यों।
ऐसा लगता है कि हम बना नहीं पाये इसलिए सब
बिगड़ गया। हम एक अच्छा नागरिक पैदा नहीं कर पाये। आप सड़क पर चलिये आपके
मुँह पर मसाले की पीकें थूक देंगे। आप ट्रेनों में चलिये आपको रगड़
डालेंगे। आप अपना पर्स किसी दूकान पर भूल जाइये फिर आप उससे पूछने की
हिम्मत नहीं जुटा पायेंगे। आप ट्रेनों में देखिए कितने लोग टिकट लेकर चलते
हंै। ये आखिर करता कौन है ? और जिस नेतृत्व को हम गाली देते हंै वह आता
कहाँ से है। जिनके बच्चे लफंगे होते हैं उन्हें राजनीति में भेज देते हैं।
जो जीनियस हैं वे डाॅक्टर, या नौकरशाह बनते हैं या फिर किसी बड़े बनिये के
यहाँ नौकरी कर लेते हैं। उन्हें कहाँ फुरसत है कि वे देश देखंे और समाज
देखें। वे तो अलसुबह नौकरी पर निकल जाते हैं और जब लौटते हैं तब तक लाला
उनका पूरा खून ले चुका होता है। तो कमाइये न पैसा। और करिये गुस्सा। देश के
दिल तक कितने लोग जा पाये और इसके लिये हमने क्या किया। एक सशक्त राष्ट्र
के लिये उन्नत नस्ल के नागरिकों का होना पहली शर्त है। शारीरिक रूप से और
मानसिक रूप से मजबूत। केचुएं तो फिर यही करेंगे जो हो रहा है। लोगों से एक
बात पूछता हूँ कि हम गमले में एक पौध रोपते हैं कितनी तैयारी करते हैं।
उसके लिये खाद, पानी और उचित मात्रा में प्रकाश की व्यवस्था। बिना इसके चल
नहीं सकता और हम ये सब करते हंै। लेकिन एक बच्चा पैदा करने के लिये हम
कितनी तैयारी करते हैं। कोई इसे बतायेगा। मुझे तो लगता है निन्यानवे फीसदी
पैदाइश यूँ ही हो जाती है। अनचाहे ढंग से। ऐसे से हम क्या उम्मीद कर सकते
हैं। इसी तरह हमारा नेतृत्व भी अनचाहे ढंग से पैदा हो जाता है। और हम कहते
हैं कि यह देश लुट रहा है। बर्बाद हो रहा है। हमारे बच्चों को मिट्टी न
लगने पाये। वे तो अब माटी के मायने भी भुलने लगे हैं तो देश और इस धरती से
कितना जुड़ सकेंगे और यही नस्ल तो संसद तक जायेगी। यही नस्ल तो कानून बनाती
है। और यही नस्ल तो लुटती और लुटाती भी है। तो हम गुस्सा किस पर करते हैं।
अपनी शिक्षा पद्धति में देश कहाँ है! आप किसी कान्वेन्ट के सिलेबस को
देखिये। मैकाले तो यहीं चाहता था ना। और हम आप उसके सपनों का हिस्सा बन रहे
हंै। हमारे सपने कहीं बहुत दूर पीछे छूट गये। एक बार मैकाले ने अपनी
ब्रिटिश संसद में कहा था, “मैंने पूरे भारतवर्ष को देखा और समझा है। मैंने
सुदूर क्षेत्रों का दौरा किया है लेकिन मुझे यहां एक भी आदमी ऐसा नहीं मिला
जो चोर हो, बेरोजगार हो अथवा बेइमान हो।“ लेकिन उसी मैकाले ने भारतीय
विधान में ऐसा उलट फेर किया कि आज नाना का वह कथन अक्षरशः सुनाई देने लगता
है। यह अंग्रेज भी जानते थे कि किसी भी राष्ट्र पर कब्जेदारी की पहली शर्त
है कि उसके मस्तिष्क पर कब्जा कर लिया जाये। और हमारा मस्तिष्क हमारे अपने
कब्जे से बाहर हो गया है । उसी मैकाले ने अपनी सफलता पर अपने पिता को लिखी
एक चिट्ठी में कहा था कि मैंने भारत को इतना बदल दिया है कि यहां आने वाली
नस्ले शारीरिक रूप से भले भारतीय हों लेकिन मानसिक रूप से वे पूरे के पूरे
अंग्रेज होंगे।“
हम यह दावे के साथ कह सकते हैं कि जबतक हमारा नैतिक
पराभव नहीं हुआ था तब तक हम सीना तान कर खड़े थे। अंग्रेजों ने यही तो
किया-हमारा चारित्रिक पतन। उन्हें पता था इस कि देश की गुलामी के लिये इसके
किसानों और युवाओं को कमजोर तथा पतित किया जाये। सो, वहीं किया। यह कम
लोगों को जानकारी होगी कि आजादी की पहली लड़ाई के लिये किसानों ने तब
करोड़ों रुपये क्रान्तिकारियों के लिये यूं ही दे दिये थे। तो जाहिर है कि
हमारा किसान तब कितना मजबूत रहा होगा। इसे अंग्रेजों ने समझा और शुरू कर
दिया किसानों को बर्बाद करना। भूमि अधिग्रहण और करों की भरमार से किसान कमर
के बल झुकता चला गया। युवाओं के लिये उसने मदिरालय बना दिये और अंग्रेजी
दां स्कूलों के डिब्बे खड़े कर दिये। जहां से वे ‘माई’ और ‘बाब’ू की जगह
डैड और माॅम कह सकें। उन्हीं की तर्ज पर आज बिल्डरों की एक बड़ी खेप
किसानों की जमीन औने-पौने दामों में खरीद रही है और उन्हीं किसानों को फिर
अपने यहाँ गार्ड या नौकरों के रूप में उपकृत कर नौकरी दे रही है। यह बात
क्यों नहीं समझ में आती है। लाख दो लाख रुपये बीघे की जमीन पर करोड़ांे का
वारा-न्यारा होता है।
अगर हम चाहते हैं कि देश का गुस्सा कम हो तो हम
सबको पहल करनी होगी। वह भी आज से और अभी से। सबसे पहले उन्नत नस्ल। और उनका
उचित नागर एवं सैन्य प्रशिक्षण। किसी भी फौजी को देखिये, उससे मिलिये। देश
के प्रति उसमें भरी आग तब समझ में आयेगी। और जब तक यह आग देश के हर कोने
में और हर दिल में नहीं उठेगी तब तक न तो बदलाव हो सकता है और न तो देश
सुधर सकता है और न ही हमारा गुस्सा थम सकता है। मुझे इकबाल की वो लाइनें
दोहराने में कोई संकोच नहीं है जिसने तब भी हिन्दुस्तान को आगाह किया था और
जो आज भी मौजूं है, ”वतन की फिक्र कर नादां, कयामत आने वाली है/ तुम्हारी
बर्बादियों के किस्से हैं आसमानों में, न सम्भलोंगे तो मिट जाओगे/ तुम्हारी
दास्तां तक न होगी दास्तानों में। ’’ तो दोस्तों आज देश बेहद गुस्से में
है! इसे समझिये। बिना संस्कार और संवेदना के एक सशक्त राष्ट्र का निर्माण
हो ही नहीं सकता। और यदि इसे हम आज से ही शुरू करे तो कम से कम पच्चीस साल
लगेंगे। आइये अपने भारत का निर्माण करें।