Wednesday 21 March 2012

‘जूनियर लोहिया’ की ताजपोशी


अरुण सिंह

कहा जा सकता है कि कुछ युवराज महलों में पैदा होते हैं। कुछ प्रबंधन के परिणाम होते हैं। लेकिन कुछ ही होते हैं जो कल्पनाओं में जन्मते हैं जो इतिहास के ढेर और उम्मीदों से परे होते हैं। अखिलेश को इनमें से किस श्रेणी में रखा जाए यह तय कर पाना मुश्किल है। आप अपने लिहाज से इसे तय कर सकते हैं।
उम्मीदों के उलट एक सीधी और सपाट पटकथा लिखी गई यूपी को कहीं कोई उलझाव नहीं। कहीं किसी-तिकड़म से वास्ता नहीं। ना खरीद, ना फरोख्त। बस सरकार बनाइए और शुरू हो जाइए।
सनातनी समाजवादी ढाँचे से निकल कर हाईटेक की दुनिया का समाजवाद, अब से मात्र एक दशक पूर्व सोचा भी नहीं जा सकता था। ‘विचारों से पिछड़े’ करार देकर लोग या तो आगे बढ़ जाते थे या फिर किसी घोर बहस में उलझ जाते।
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को ताजे विधानसभा चुनाव में 224 का जादुई आकड़ा मिलने पर यह टिप्पणियाँ आनी ही चाहिए कि समाजवाद का चेहरा बदल रहा है। पर ऐसा बदलाव ला पाना कितना कठिन रहा होगा इसे तो सिर्फ अखिलेश यादव और उनकी टीम ही बता सकती है। शुरुआत के दिनों में तो राहुल की आभामंडल के आगे मीडिया ने भी उन्हें तवज्जो तक नहीं दी।
अपने क्रांतिरथ से यूपी को 8000 किमी की लंबाई में मथने और 250 किमी की साइकिल यात्रा के दौरान पैडल मारकर पसीने लथपथ अखिलेश ने साबित कर दिया कि इस चुनावी लड़ाई में सत्ताधारी बसपा को असल चुनौती वही देंगे।
अखिलेश के लिए यह चुनाव सिर्फ सीटों और सरकार बनाकर चलाने भर का नहीं था। यह चुनाव था नये जामे में समाजवाद को लाकर खड़ा करके उसकी स्वीकार्यता को साबित करने का, जहाँ पीढ़ियों का फासला साफ दिखाई देता है। यह फासला स्वयं मुलायम सिंह यादव और अखिलेश में भी आसानी से देखा जा सकता है। ठीक उसी तरह जिस तरह लोहिया और मुलायम में।
यह चुनाव था दिग्गजों और वरिष्ठों के बीच एक सटीक रास्ता बनाकर आगे निकल जाने का। और यह चुनाव था कच्चे कंधों पर चढ़कर ऊपर जाने का और यह अपने उन साथियों पर भरोसा करने का भी चुनाव था जो राजनीति की ‘अधपकी बालियाँ’ सरीखीं थीं-यानि अखिलेश की युवा टीम।
‘जिन्दा कौमों’ का इतिहास-लेखन आसान नहीं होता, ये लम्बे समय तक इन्तजार नहीं करती हैं। और इतिहास बनाना भी आसान नहीं होता क्योंकि प्रतिगामी शक्तियाँ ऐसा कदापि नहीं करने देती हैं। 14 नवम्बर 2011 को जवाहरलाल नेहरू की पारम्परिक सीट फूलपुर (इलाहाबाद) में एक विशाल जनसभा होनी थी। ‘कांग्रेस के युवराज’ राहुल गाँधी अपने चुनावी अभियान का फस्र्ट शो शुरू करने वाले थे तब सपाइयों ने उनका राजनैतिक विरोध किया और उन पर टूट पड़े अंगरक्षकों के साथ कांग्रेस के बड़े नेता व मंत्री। तब पिट रहे ‘कथित सपाई गुण्ड़ों’ और पीट रहे ‘कथित कांग्रेसी शरीफों’ को भी यह एहसास नहीं रहा होगा कि कहानी एकदम बदल जाएगी। आप ‘यहाँ पीट रहे हैं’ हम वहाँ ‘सियासत’ में पीट देंगे। उल्लेखनीय है कि कभी इसी सीट से लोहिया भी जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ चुनाव लड़े थे।
‘राहुल-राज’ आते-आते बहुत पीछे छूट गया। ना करिश्मा काम आया और ना ही विरासत ने मदद की। 38 वर्षीय अखिलेश अपने से वरिष्ठ राहुल गाँधी के उलट अपना अंदाज बेहद ‘सॅाफ्ट’ रखा जबकि समाजवादियों के लिए यह सोच पाना भी कठिन है। बात-बात पर ‘हल्लाबोल’ देने वाले सपाइयों को ‘आईपाॅड’ और फेसबुक-संस्कृति से जोड़ना पुराने समाजवादियों के लिए नामुमकिन था।
नये बदलाव को लेकर अखिलेश अपने एक साक्षात्कार में कहते हैं,‘‘जब मुझे पार्टी की जिम्मेदारी दी गयी थी (2009 मंे) तभी मैंने ये सुनिश्चित कर लिया था कि जहाँ भी हो सके हम तकनीकि का इस्तेमाल करें। कांग्रेस हमारा मखौल उड़ाती रही है कि हम अंग्रेजी और कम्प्यूटरों के खिलाफ हैं। कांग्रेस कहती है कम्प्यूटर अंग्रेजी में होने चाहिए, मैं कहता हूँ कम्प्यूटर हिन्दी और उर्दू में होने चाहिए।’’
विचारधारा के स्तर पर बचाव और बदलाव अखिलेश ने सीख लिया है। वे तकनीकि बदलाव को विचारधारा के बदलाव के रूप में नहीं देखते। उनको यह कहते हुए सुनकर नई पीढ़ी के समाजवादियों को सुखद लगता है कि हम तकनीकि के खिलाफ नहीं हैं बल्कि हम ऐसी तकनीकि के खिलाफ हैं जो बेरोजगारी बढ़ाती हो।
उनके लिविंग रूम में अमेरिकी राॅक बैण्ड गन्स एण्ड रोसेज, वाॅन जोवी, मेटेलिक बैण्ड मैटालिका, कनाडाई राॅक सिंगर ब्रायन ऐडम्स और जार्ज माइकल के एल्बम अगर खूबसूरती के साथ मिलते हैं तो वे साइकिल चलाना और तल्खी के बजाय मीठी आवाज में जवाब देना भी नहीं भूलते। तभी तो बेनी प्रसाद वर्मा, अमरसिंह और दिग्विजय सिंह जैसे बड़बोले जैसे नेताओं को बहुत शालीनता से जवाब देते हैं। वे अपने को बच्चा कहने वाले को भी ‘चच्चा’ कहकर उनकी धार कुन्द कर देते हैं। यहाँ वे लोहिया की तरह आग्रही बन जाते हैं, दुराग्रही नहीं। बेशक वे मुलायम सिंह की तरह मिट्टी वाले अखाड़ों में न जाते हों लेकिन अपने धरतीपुत्र पिता मुलायम सिंह की ही तरह वे सेहत के प्रति सचेत भी रहते हैं और अपने घरेलू जिम से ही सुबह की शुरुआत करते हैं। वे फुटबाॅल खेलते हैं लेकिन अपनी लम्बी यात्राओं में चुनावी अभियानों, सार्वजनिक और निजी संवादों में वे समाजवाद को हमेशा जिन्दा रखना नहीं भूलते। वे लोहिया और उनके दोनों शिष्यों, मुलायम सिंह तथा जनेश्वर मिश्रा जैसे ‘छोटे लोहियों’ से ऊर्जा लेकर अब खुद को ‘जूनियर लोहिया’ में ढाल रहे हैं। सिर पर लाल टोपी पहने वे अब यह तो कह ही सकते हैं कि अब यह वक्त हमारा है।
स्व.जनेश्वर मिश्रा ने ही राजनीति की नर्सरी में अखिलेश को सपा के युवा इकाई की बागडोर को देकर रोपने का काम किया था ताकि वे अपनी उम्र के समाजवादियों के साथ पलें, बढ़ें और उन्हें समझें। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जनेश्वर मिश्रा का यह प्रयोग काफी हद तक सफल हुआ। अखिलेश आज की ताजा पीढ़ी को लैपटाॅप और टैबलेट पीसी जैसी आधुनिक तकनीकि से करने के पक्षधर हैं। समाजवाद का प्रगतिशील चेहरा बनकर उभरे अखिलेश के सामने चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं, उम्मीद की जानी चाहिए कि इन सबसे वे आसानी से निपट लेंगे, जैसे ताजा विधानसभा चुनाव में अपने सियासी विरोधियों से निपट लिया।
डाॅ0 लोहिया ने फूलपुर में नेहरू से हारने के बाद एक वक्तव्य में कहा था, ‘‘आज मेरे पास कुछ नहीं है। सिवाय इसके कि हिन्दुस्तान के साधारण और गरीब लोग सोचते हैं कि शायद मैं उनका आदमी हूँ। इसी नाम को लेकर मुझे पुरानी चट्टानों से टकराना है। कोई भी चट्टान हो, इस टकराने से वह थोड़ा सा जरूर चटकेगी लेकिन अभी ऐसी हालत नहीं है कि यह या वह चट्टान तोड़ी जा सके।’’ लेकिन अखिलेश के लिए हालात ऐसे नहीं हैं। डाॅ0 लोहिया तो ‘राजनीति के पराजित योद्धा’ थे जबकि ‘आज का वक्त अखिलेश का है।’

मनोज: फ़ुरसत में ... स्मृति से साक्षात्कार

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