-अरुण सिंह
भारत एक उत्सवधर्मी देश है। इतना बड़ा कि शायद ही किसी देश में इतनी जीवन्तता हो। इतनी याद्दाश्त भी किसी देश के पास नहीं है कि वह हजारांे साल की विरासत की गठरी सजाए अपनी स्मृतियों में संजोये रखे रहे। भारत ऐसा ही करता है। वह ऐसा अपने उत्सवों के माध्यम से, अपनी प्रथाओं- परम्पराओं में और रीति-रिवाजों में करता है।
बस; उनका कभी विचार करिए और लोगो को कराइए। आप पायेंगे कि हमारे पास बहुुत ही छोटी-छोटी चीजें हैं; बहुत बड़े-बड़े अर्थों से भरी हुई। प्रतीकों और मिथकों में ऐसे-ऐसे संकेत हंै जो हमें संस्कारवान बनाते हैं। सहिष्णु और उदार बनाते हैं। हमारा पौरुष जगाते हैं।
शरद् ऋतु का चल रही है। जाते शरद ऋतु में हम दीपावली पूजन करते हैं। हेमन्त ऋतु का स्वागत करते हैं-दीपों से, पटाखों से। अपने घरों को चमकाकर, रंगा-पुता कर। इससे पूर्व कार्तिक और क्वार बीता है। यह किसानों का महीना है। क्वार बीतते-बीतते हमारे खेत खाली होने लगते है। धान की सुनहरी बालियाँ विनम्रता से अपनी गर्दन झुका लेती हैं। इन्हीं दिनों बंगाली भद्रलोक उमा की आगवानी और विदाई करते है। उत्तर प्रदेश विजयदशमी मनाता है। राजस्थान में पुष्कर और बिहार के सोनपुर के पशु मेले लगते हैं। गुजरात की गरबा; लाखों दीपों की एक साथ रोशनी स्तब्ध करने वाली होती है। फिर तो पूरा देश, खासकर उत्तर भारत त्यौहारों से अह्लादित हो उठता है। इस बीच छोटे-छोटे ‘उप उत्सव’ भी चलते रहते हैं। यही जीवन्त भारत है। जहाँ सेन्सेक्स असर नहीं डाल पाता है। जहाँ धर्म के धन्धेबाजों की चलती नहीं। जहाँ स्टिंग आॅपरेशन की गुंजाईश नहीं रहती। राजस्थानी रेती दोआबे तक पहुँचती है, तो यहाँ की नमी राजस्थान की रेत को नम करती है।
पूरा भारतवर्ष मिथकों के पैमाने पर अपने को साधता है। एक संस्कृति सम्पन्न भारतीय के लिए यह अक्षय ऊर्जा के स्रोत हैं, अनन्त प्रकाशस्तम्भ हैं। आज भूमण्डलीकरण और राजनीति हमारे पारम्परिक ढाँचे को हमारी परम्पराओं को तोड़ने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। बाजार ने ‘चिकने वैभव’ की लालसा पैदा की तो बदली हुई राजनीति ने सामाजिक ताने-बाने को अपनी ‘ऊँची’ करने के लिए इसे ध्वस्त ही कर डाला।
परन्तु देश नई पीढ़ी बदल रही है। काफी हद तक बदल चुकी है। यहां बदलाव परम्पराओं कटने के रूप में सहज देखा जाने लगा है। इस नये भारतके नए समाज को देखिए-नई पीढ़ी को देखिए-मिट्टी छू भर जाए तो एलर्जी हो जाती है। इनके हाथ मैले हो जाते है। पूरा देश अंग्रेज हो रहा है, अमेरिकन हो रहे हैं लोग और उधर भी नज़र दौड़ाइये-यूरोपीय देशों में। अमरीकी और फिरंगी हैं कि भारतीय बनने को आतुर हैं, क्यो? आखिर क्या है अपने देश में- शायद वही मिथक।
यहाँ मिथक हैं। सपने हैं। संस्कारवान आकांक्षाएँ हैं। हमने छोटी-छोटी चीजों में संतोष के साथ जीना सीखा है। आनन्द के लिए हमें किसी निवेश की जरूरत नहीं पड़ती। खुशी हम मुफ्त में लुटाते हैं और सहज ही पाते हैं। हमने रोने में आनन्द सीखा है। बेटी की विदाई देखा है! देखिए उसे। हमारे गाँवों में बेटी विदा करते समय उसके आँचल में चावल डालते हैं। हल्दी और दूर्वा यानी दूब डालते हैं और कुछ द्रव्य भी। कितनी छोटी-छोटी बाते हैं। इन सबके बड़े गहरे अर्थ हैं। हल्दी भारतीय परंपरा में अतिशुभ मानी जाती है। वह शुभता का प्रतीक है, चावल धन-धान्य और वह छोटी सी दूर्वा! दूर्वा हमें प्रकृति से जोड़ती है। जिन लोगों ने खेतों में काम किया होगा उन्हें पता होगा की दूब जल्दी खत्म नहीं होती। उसकी पोर पोर से अंकुर फूटता है। उसका विस्तार होता रहता है। वह धरती से अनुराग पैदा कराती है। हमारे आख्यानों में आता है कि रावण ने जब भी सीताजी से बात की, सीता ने हाथ में तृण रखा, दूर्वा रखकर बात की-तृणधरि ओट कहत वैदेही-क्यों? इन सबके गहरे अर्थ हैं। आज का ‘भूरा अंग्रेज’ इसे क्यों समझेगा? कैसे समझेगा? बेटी की विदाई का दृश्य आज से दस बीस साल पहले जो था, पूरा गाँव बिलख उठता था, यह विदाई पूरे गाँव की बेटी की होती थी। बिना किसी भेदभाव के पर क्या आज भी है? हमारे रीति-रिवाजों में आनन्द के अपार स्रोत हैं-मिलने का, बिछड़ने का। यह ‘उनके’ पास कहाँ है! जिनकी हम ‘नकल’ कर रहे हैं, उनके पास मिथक नहीं है। वे आज इसे गढ़ भी नहीं सकते। गढ़ेंगे तो भी हजारों साल लग जायेंगे फिर भी बात नहीं बन पायेगी।
बाजार ने हेल्थ सेन्टर खोल दिए। पार्लर खोल दिए। हसीन बनाने के लिए। आप देखिए-अपनी देव प्रतिमाएँ, उनका सौन्दर्य निहारिए। हजारों सालों से बन रही हैं। उनकी आँखों में आँख नहीं डाल सकते। माटी का सौन्दर्य-इतनी ऊर्जा से भरा हुआ है! किसी माई के लाल में हिम्मत हो तो माँ दुर्गा जैसी सूरत बनाकर दिखाए-किसी पार्लर में, किसी हेल्थ सेन्टर में जाकर; नहीं हो सकता। क्योंकि असली सौन्दर्य यही है जो इन प्रतिमाओं में झलकता है। हैं तो ये मिथक ही। हमे ‘रूटीन’ बदलना होगा। संस्कार बदलना होगा, तब यह सौन्दर्य आएगा। हमारे त्यौहार भी यही कहते हैं - माटी से जुड़ो, सौन्दर्य स्वतः फूट पड़ेगा अंग-अंग से, पोर-पोर से। किसान मोटापे से नहीं मरता, मधुमेह से नहीं मरता। वह मरता है अपनों से जो उसे जड़ों से काट रहे हैं; जो उसे लिबास में पैबन्द की तरह मानते हैं।
हमारे उत्सव में माटी से जोड़ते हैं, धरती ही सब कुछ है। दीपावली की एक-एक चीज देखिए-रूई, खीलें, सरसों का तेल, माटी की मूरतें, माटी के जांता या जतोले और माटी की ही घंटियाँ। ध्यान से देखिए इन्हें; बड़ी अद्भुत चीजें हैं ये।
आज ‘ग्लोबल विलेज’ में हमारे ‘विलेज’ थकते नज़र आ रहे हैं। गाँव खोते जा रहे हैं। जो शहर आ गए हैं, वह गाँव जाना नहीं चाहते। जो गाँव में हैं उन्हें शहर लुभा रहा है। है न अजीब-सी बात। बच्चे धान की बालियाँ नहीं जानते, चने के खेत नहीं देखा है। खलिहान नहीं जानते। हो सकता है आने वाले दिनों में मिट्टी भी प्रयोगशालाओं देखें। फिर कैसा भारत होगा? पूरे कृषिकर्म और उसके आनन्द से वंचित। मै कहता हूँ खेत-खलिहान देखिए और उन्हें भी दिखाइए। खेत की मिट्टी को मुट्ठी में बन्द कर उसके स्पन्दन को महसूस करिए। हथेली में अंकुर फूटने जैसा अनुभव होगा। फसलों और ऋतुओं के साथ-साथ हमारे उत्सव आते हैं। पूरा भारत झूमता है, बिना किसी जाति, धर्म और पन्थ के विचार से। शहर में आये किसानों को शहरी कैसे देखता है, जैसे चिड़ियाघर में आया कोई नया जीव हो, कभी कौतूहलवश, तो कभी हिकारत से। फिर भी हमारा किसान मस्त मलंग रहता है।
रामसेतु के बहाने राम की चर्चा उठती रहती है। उनकी प्रासंगिकता और ऐतिहासिकता को लेकर ऐसी टिप्पणियाँ और सवाल आते रहते हैं, जिन्हे कभी किसी विदेशी ने नहीं किया और उठाया होगा। राम को हमारे समाज और देश से अलग करके देखा ही नही जा सकता। पूरी पूरी दुनिया में गाँवों से बड़ा महामानव शायद ही कोई हुआ हो-इधर के दिनों में। गाँधी ने भी राम को आत्मसात् किया; भले ही उनके अपने ‘राम’ रहे हों। वह यूँ ही नहीं। राम सिर्फ मिथक हैं, तो भी आचरणीय हैं, आदरणीय हैं, वह यूँ ही नहीं। मिथक हमें दृष्टि देते हैं। मिथक सामाजिक नियामक हैं। अपने नियामकों की अवहेलना करने वाला न देश रहता है न ही देश के वासी।
हमने बहुत विकास किया है। हमारे ऊध्र्वगामी विचारों ने हमें दुनिया में श्रेष्ठ घोषित किया। हमारी आध्यात्मिक चेतना ने हमें वहां तक पहुंचाया जहां कोई सोच भी नहीं सकता है। हमने आंख मूंदकर ध्यान और समाधि करके जो चीजे देखी वह दुनिया की बड़ी-बड़ी प्रयोगशालाएं अब सच मान रही हैं। हमने हजारों साल पहले पिंड और ब्रह्माण्ड के तादात्म्य को दुनिया के सामने रखा था-यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे। हमने ग्रहों की गणना और चाल वर्षों पहले गिन लिया था। फिर भी हम सुन्दर होते भारत को कहीं न कहीं से दागदार बना रहे हैं। कमजोर कर रहे हैं।
हम वैभव और यश अर्जित करें पर किस शर्त पर? यह सुविचारित ढंग से तय होना चाहिए। लक्ष्मी के आगमन का मार्ग और साधन कैसा होना चाहिए और उनका सदुपयोग हो तो कैसे? दीपावली पर चढ़ने वाली धान की खीलें, सरसों के तेल, दिये की बाती हमारी थाती हैं। इसे हमें आने वाली पीढ़ी को संदेश के रूप में हस्तान्तरित करना चाहिए, जिससे हमारे बच्चे हमारी परम्पराओं के साथ पल बढ़ सकें। उसकी उंगली था आगे बढ़े। संस्कारवान बने रह सकें। एक अंग्रेज होने से ज्यादा भारतीय होने की गरिमा उन्हें मुग्ध करती रहे। फिर भी यहां कुछ दाग हैं जिसे धोना होगा। तमाम विडंबनाओं के बावजूद हमने हमेशा यहीं माना उत्सव ही हमारी जाति है और आनन्द ही हमारा गोत्र। अन्त में, हम कामना कर सकते है कि पान के पत्तों पर लक्ष्मी, सिन्दूर लगाये दधि-दूर्वा के साथ लक्ष्मी-गणेश हों और उनके चारों ओर बिखरे हों धान की खीलें और बताशे। हम खुश हांे, राष्ट्र समुन्नत हो तभी आनन्द है। अनन्त आनन्द! शाश्वत् आनन्द!!
-अरुण सिंह
arunsinghjournalist@gmail.com
Mob. : 9450196408
भारत एक उत्सवधर्मी देश है। इतना बड़ा कि शायद ही किसी देश में इतनी जीवन्तता हो। इतनी याद्दाश्त भी किसी देश के पास नहीं है कि वह हजारांे साल की विरासत की गठरी सजाए अपनी स्मृतियों में संजोये रखे रहे। भारत ऐसा ही करता है। वह ऐसा अपने उत्सवों के माध्यम से, अपनी प्रथाओं- परम्पराओं में और रीति-रिवाजों में करता है।
बस; उनका कभी विचार करिए और लोगो को कराइए। आप पायेंगे कि हमारे पास बहुुत ही छोटी-छोटी चीजें हैं; बहुत बड़े-बड़े अर्थों से भरी हुई। प्रतीकों और मिथकों में ऐसे-ऐसे संकेत हंै जो हमें संस्कारवान बनाते हैं। सहिष्णु और उदार बनाते हैं। हमारा पौरुष जगाते हैं।
शरद् ऋतु का चल रही है। जाते शरद ऋतु में हम दीपावली पूजन करते हैं। हेमन्त ऋतु का स्वागत करते हैं-दीपों से, पटाखों से। अपने घरों को चमकाकर, रंगा-पुता कर। इससे पूर्व कार्तिक और क्वार बीता है। यह किसानों का महीना है। क्वार बीतते-बीतते हमारे खेत खाली होने लगते है। धान की सुनहरी बालियाँ विनम्रता से अपनी गर्दन झुका लेती हैं। इन्हीं दिनों बंगाली भद्रलोक उमा की आगवानी और विदाई करते है। उत्तर प्रदेश विजयदशमी मनाता है। राजस्थान में पुष्कर और बिहार के सोनपुर के पशु मेले लगते हैं। गुजरात की गरबा; लाखों दीपों की एक साथ रोशनी स्तब्ध करने वाली होती है। फिर तो पूरा देश, खासकर उत्तर भारत त्यौहारों से अह्लादित हो उठता है। इस बीच छोटे-छोटे ‘उप उत्सव’ भी चलते रहते हैं। यही जीवन्त भारत है। जहाँ सेन्सेक्स असर नहीं डाल पाता है। जहाँ धर्म के धन्धेबाजों की चलती नहीं। जहाँ स्टिंग आॅपरेशन की गुंजाईश नहीं रहती। राजस्थानी रेती दोआबे तक पहुँचती है, तो यहाँ की नमी राजस्थान की रेत को नम करती है।
पूरा भारतवर्ष मिथकों के पैमाने पर अपने को साधता है। एक संस्कृति सम्पन्न भारतीय के लिए यह अक्षय ऊर्जा के स्रोत हैं, अनन्त प्रकाशस्तम्भ हैं। आज भूमण्डलीकरण और राजनीति हमारे पारम्परिक ढाँचे को हमारी परम्पराओं को तोड़ने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। बाजार ने ‘चिकने वैभव’ की लालसा पैदा की तो बदली हुई राजनीति ने सामाजिक ताने-बाने को अपनी ‘ऊँची’ करने के लिए इसे ध्वस्त ही कर डाला।
परन्तु देश नई पीढ़ी बदल रही है। काफी हद तक बदल चुकी है। यहां बदलाव परम्पराओं कटने के रूप में सहज देखा जाने लगा है। इस नये भारतके नए समाज को देखिए-नई पीढ़ी को देखिए-मिट्टी छू भर जाए तो एलर्जी हो जाती है। इनके हाथ मैले हो जाते है। पूरा देश अंग्रेज हो रहा है, अमेरिकन हो रहे हैं लोग और उधर भी नज़र दौड़ाइये-यूरोपीय देशों में। अमरीकी और फिरंगी हैं कि भारतीय बनने को आतुर हैं, क्यो? आखिर क्या है अपने देश में- शायद वही मिथक।
यहाँ मिथक हैं। सपने हैं। संस्कारवान आकांक्षाएँ हैं। हमने छोटी-छोटी चीजों में संतोष के साथ जीना सीखा है। आनन्द के लिए हमें किसी निवेश की जरूरत नहीं पड़ती। खुशी हम मुफ्त में लुटाते हैं और सहज ही पाते हैं। हमने रोने में आनन्द सीखा है। बेटी की विदाई देखा है! देखिए उसे। हमारे गाँवों में बेटी विदा करते समय उसके आँचल में चावल डालते हैं। हल्दी और दूर्वा यानी दूब डालते हैं और कुछ द्रव्य भी। कितनी छोटी-छोटी बाते हैं। इन सबके बड़े गहरे अर्थ हैं। हल्दी भारतीय परंपरा में अतिशुभ मानी जाती है। वह शुभता का प्रतीक है, चावल धन-धान्य और वह छोटी सी दूर्वा! दूर्वा हमें प्रकृति से जोड़ती है। जिन लोगों ने खेतों में काम किया होगा उन्हें पता होगा की दूब जल्दी खत्म नहीं होती। उसकी पोर पोर से अंकुर फूटता है। उसका विस्तार होता रहता है। वह धरती से अनुराग पैदा कराती है। हमारे आख्यानों में आता है कि रावण ने जब भी सीताजी से बात की, सीता ने हाथ में तृण रखा, दूर्वा रखकर बात की-तृणधरि ओट कहत वैदेही-क्यों? इन सबके गहरे अर्थ हैं। आज का ‘भूरा अंग्रेज’ इसे क्यों समझेगा? कैसे समझेगा? बेटी की विदाई का दृश्य आज से दस बीस साल पहले जो था, पूरा गाँव बिलख उठता था, यह विदाई पूरे गाँव की बेटी की होती थी। बिना किसी भेदभाव के पर क्या आज भी है? हमारे रीति-रिवाजों में आनन्द के अपार स्रोत हैं-मिलने का, बिछड़ने का। यह ‘उनके’ पास कहाँ है! जिनकी हम ‘नकल’ कर रहे हैं, उनके पास मिथक नहीं है। वे आज इसे गढ़ भी नहीं सकते। गढ़ेंगे तो भी हजारों साल लग जायेंगे फिर भी बात नहीं बन पायेगी।
बाजार ने हेल्थ सेन्टर खोल दिए। पार्लर खोल दिए। हसीन बनाने के लिए। आप देखिए-अपनी देव प्रतिमाएँ, उनका सौन्दर्य निहारिए। हजारों सालों से बन रही हैं। उनकी आँखों में आँख नहीं डाल सकते। माटी का सौन्दर्य-इतनी ऊर्जा से भरा हुआ है! किसी माई के लाल में हिम्मत हो तो माँ दुर्गा जैसी सूरत बनाकर दिखाए-किसी पार्लर में, किसी हेल्थ सेन्टर में जाकर; नहीं हो सकता। क्योंकि असली सौन्दर्य यही है जो इन प्रतिमाओं में झलकता है। हैं तो ये मिथक ही। हमे ‘रूटीन’ बदलना होगा। संस्कार बदलना होगा, तब यह सौन्दर्य आएगा। हमारे त्यौहार भी यही कहते हैं - माटी से जुड़ो, सौन्दर्य स्वतः फूट पड़ेगा अंग-अंग से, पोर-पोर से। किसान मोटापे से नहीं मरता, मधुमेह से नहीं मरता। वह मरता है अपनों से जो उसे जड़ों से काट रहे हैं; जो उसे लिबास में पैबन्द की तरह मानते हैं।
हमारे उत्सव में माटी से जोड़ते हैं, धरती ही सब कुछ है। दीपावली की एक-एक चीज देखिए-रूई, खीलें, सरसों का तेल, माटी की मूरतें, माटी के जांता या जतोले और माटी की ही घंटियाँ। ध्यान से देखिए इन्हें; बड़ी अद्भुत चीजें हैं ये।
आज ‘ग्लोबल विलेज’ में हमारे ‘विलेज’ थकते नज़र आ रहे हैं। गाँव खोते जा रहे हैं। जो शहर आ गए हैं, वह गाँव जाना नहीं चाहते। जो गाँव में हैं उन्हें शहर लुभा रहा है। है न अजीब-सी बात। बच्चे धान की बालियाँ नहीं जानते, चने के खेत नहीं देखा है। खलिहान नहीं जानते। हो सकता है आने वाले दिनों में मिट्टी भी प्रयोगशालाओं देखें। फिर कैसा भारत होगा? पूरे कृषिकर्म और उसके आनन्द से वंचित। मै कहता हूँ खेत-खलिहान देखिए और उन्हें भी दिखाइए। खेत की मिट्टी को मुट्ठी में बन्द कर उसके स्पन्दन को महसूस करिए। हथेली में अंकुर फूटने जैसा अनुभव होगा। फसलों और ऋतुओं के साथ-साथ हमारे उत्सव आते हैं। पूरा भारत झूमता है, बिना किसी जाति, धर्म और पन्थ के विचार से। शहर में आये किसानों को शहरी कैसे देखता है, जैसे चिड़ियाघर में आया कोई नया जीव हो, कभी कौतूहलवश, तो कभी हिकारत से। फिर भी हमारा किसान मस्त मलंग रहता है।
रामसेतु के बहाने राम की चर्चा उठती रहती है। उनकी प्रासंगिकता और ऐतिहासिकता को लेकर ऐसी टिप्पणियाँ और सवाल आते रहते हैं, जिन्हे कभी किसी विदेशी ने नहीं किया और उठाया होगा। राम को हमारे समाज और देश से अलग करके देखा ही नही जा सकता। पूरी पूरी दुनिया में गाँवों से बड़ा महामानव शायद ही कोई हुआ हो-इधर के दिनों में। गाँधी ने भी राम को आत्मसात् किया; भले ही उनके अपने ‘राम’ रहे हों। वह यूँ ही नहीं। राम सिर्फ मिथक हैं, तो भी आचरणीय हैं, आदरणीय हैं, वह यूँ ही नहीं। मिथक हमें दृष्टि देते हैं। मिथक सामाजिक नियामक हैं। अपने नियामकों की अवहेलना करने वाला न देश रहता है न ही देश के वासी।
हमने बहुत विकास किया है। हमारे ऊध्र्वगामी विचारों ने हमें दुनिया में श्रेष्ठ घोषित किया। हमारी आध्यात्मिक चेतना ने हमें वहां तक पहुंचाया जहां कोई सोच भी नहीं सकता है। हमने आंख मूंदकर ध्यान और समाधि करके जो चीजे देखी वह दुनिया की बड़ी-बड़ी प्रयोगशालाएं अब सच मान रही हैं। हमने हजारों साल पहले पिंड और ब्रह्माण्ड के तादात्म्य को दुनिया के सामने रखा था-यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे। हमने ग्रहों की गणना और चाल वर्षों पहले गिन लिया था। फिर भी हम सुन्दर होते भारत को कहीं न कहीं से दागदार बना रहे हैं। कमजोर कर रहे हैं।
हम वैभव और यश अर्जित करें पर किस शर्त पर? यह सुविचारित ढंग से तय होना चाहिए। लक्ष्मी के आगमन का मार्ग और साधन कैसा होना चाहिए और उनका सदुपयोग हो तो कैसे? दीपावली पर चढ़ने वाली धान की खीलें, सरसों के तेल, दिये की बाती हमारी थाती हैं। इसे हमें आने वाली पीढ़ी को संदेश के रूप में हस्तान्तरित करना चाहिए, जिससे हमारे बच्चे हमारी परम्पराओं के साथ पल बढ़ सकें। उसकी उंगली था आगे बढ़े। संस्कारवान बने रह सकें। एक अंग्रेज होने से ज्यादा भारतीय होने की गरिमा उन्हें मुग्ध करती रहे। फिर भी यहां कुछ दाग हैं जिसे धोना होगा। तमाम विडंबनाओं के बावजूद हमने हमेशा यहीं माना उत्सव ही हमारी जाति है और आनन्द ही हमारा गोत्र। अन्त में, हम कामना कर सकते है कि पान के पत्तों पर लक्ष्मी, सिन्दूर लगाये दधि-दूर्वा के साथ लक्ष्मी-गणेश हों और उनके चारों ओर बिखरे हों धान की खीलें और बताशे। हम खुश हांे, राष्ट्र समुन्नत हो तभी आनन्द है। अनन्त आनन्द! शाश्वत् आनन्द!!
-अरुण सिंह
arunsinghjournalist@gmail.com
Mob. : 9450196408