Wednesday 26 October 2016

उत्सव आमार जाति, आनंद आमार गोत्र!

-अरुण सिंह
भारत एक उत्सवधर्मी देश है। इतना बड़ा कि शायद ही किसी देश में इतनी जीवन्तता हो। इतनी याद्दाश्त भी किसी देश के पास नहीं है कि वह हजारांे साल की विरासत की गठरी सजाए अपनी स्मृतियों में संजोये रखे रहे। भारत ऐसा ही करता है। वह ऐसा अपने उत्सवों के माध्यम से, अपनी प्रथाओं- परम्पराओं में और रीति-रिवाजों में करता है।
बस; उनका कभी विचार करिए और लोगो को कराइए। आप पायेंगे कि हमारे पास बहुुत ही छोटी-छोटी चीजें हैं; बहुत बड़े-बड़े अर्थों से भरी हुई। प्रतीकों और मिथकों में ऐसे-ऐसे संकेत हंै जो हमें संस्कारवान बनाते हैं। सहिष्णु और उदार बनाते हैं। हमारा पौरुष जगाते हैं।
शरद् ऋतु का चल रही है। जाते शरद ऋतु में हम दीपावली पूजन करते हैं। हेमन्त ऋतु का स्वागत करते हैं-दीपों से, पटाखों से। अपने घरों को चमकाकर, रंगा-पुता कर। इससे पूर्व कार्तिक और क्वार बीता है। यह किसानों का महीना है। क्वार बीतते-बीतते हमारे खेत खाली होने लगते है। धान की सुनहरी बालियाँ विनम्रता से अपनी गर्दन झुका लेती हैं। इन्हीं दिनों बंगाली भद्रलोक उमा की आगवानी और विदाई करते है। उत्तर प्रदेश विजयदशमी मनाता है। राजस्थान में पुष्कर और बिहार के सोनपुर के पशु मेले लगते हैं। गुजरात की गरबा; लाखों दीपों की एक साथ रोशनी स्तब्ध करने वाली होती है। फिर तो पूरा देश, खासकर उत्तर भारत त्यौहारों से अह्लादित हो उठता है। इस बीच छोटे-छोटे ‘उप उत्सव’ भी चलते रहते हैं। यही जीवन्त भारत है। जहाँ सेन्सेक्स असर नहीं डाल पाता है। जहाँ धर्म के धन्धेबाजों की चलती नहीं। जहाँ स्टिंग आॅपरेशन की गुंजाईश नहीं रहती। राजस्थानी रेती दोआबे तक पहुँचती है, तो यहाँ की नमी राजस्थान की रेत को नम करती है।
पूरा भारतवर्ष मिथकों के पैमाने पर अपने को साधता है। एक  संस्कृति सम्पन्न भारतीय के लिए यह अक्षय ऊर्जा के स्रोत हैं, अनन्त प्रकाशस्तम्भ हैं। आज भूमण्डलीकरण और राजनीति हमारे पारम्परिक ढाँचे को हमारी परम्पराओं को तोड़ने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। बाजार ने ‘चिकने वैभव’ की लालसा पैदा की तो बदली हुई राजनीति ने सामाजिक ताने-बाने को अपनी ‘ऊँची’ करने के लिए इसे ध्वस्त ही कर डाला।
परन्तु देश नई पीढ़ी बदल रही है। काफी हद तक बदल चुकी है। यहां बदलाव परम्पराओं कटने के रूप में सहज देखा जाने लगा है। इस नये भारतके नए समाज को देखिए-नई पीढ़ी को देखिए-मिट्टी छू भर जाए तो एलर्जी हो जाती है। इनके हाथ मैले हो जाते है। पूरा देश अंग्रेज हो रहा है, अमेरिकन हो रहे हैं लोग और उधर भी नज़र दौड़ाइये-यूरोपीय देशों में। अमरीकी और फिरंगी हैं कि भारतीय बनने को आतुर हैं, क्यो? आखिर क्या है अपने देश में- शायद वही मिथक।
यहाँ मिथक हैं। सपने हैं। संस्कारवान आकांक्षाएँ हैं। हमने छोटी-छोटी चीजों में संतोष के साथ जीना सीखा है। आनन्द के लिए हमें किसी निवेश की जरूरत नहीं पड़ती। खुशी हम मुफ्त में लुटाते हैं और सहज ही पाते हैं। हमने रोने में आनन्द सीखा है। बेटी की विदाई देखा है! देखिए उसे। हमारे गाँवों में बेटी विदा करते समय उसके आँचल में चावल डालते हैं। हल्दी और दूर्वा यानी दूब डालते हैं और कुछ द्रव्य भी। कितनी छोटी-छोटी बाते हैं। इन सबके बड़े गहरे अर्थ हैं। हल्दी भारतीय परंपरा में अतिशुभ मानी जाती है। वह शुभता का प्रतीक है, चावल धन-धान्य और वह छोटी सी दूर्वा! दूर्वा हमें प्रकृति से जोड़ती है। जिन लोगों ने खेतों में काम किया होगा उन्हें पता होगा की दूब जल्दी खत्म नहीं होती। उसकी पोर पोर से अंकुर फूटता है। उसका विस्तार होता रहता है। वह धरती से अनुराग पैदा कराती है। हमारे आख्यानों में आता है कि रावण ने जब भी सीताजी से बात की, सीता ने हाथ में तृण रखा, दूर्वा रखकर बात की-तृणधरि ओट कहत वैदेही-क्यों? इन सबके गहरे अर्थ हैं। आज का ‘भूरा अंग्रेज’ इसे क्यों समझेगा? कैसे समझेगा? बेटी की विदाई का दृश्य आज से दस बीस साल पहले जो था, पूरा गाँव बिलख उठता था, यह विदाई पूरे गाँव की बेटी की होती थी। बिना किसी भेदभाव के पर क्या आज भी है? हमारे रीति-रिवाजों में आनन्द के अपार स्रोत हैं-मिलने का, बिछड़ने का। यह ‘उनके’ पास कहाँ है! जिनकी हम ‘नकल’ कर रहे हैं, उनके पास मिथक नहीं है। वे आज इसे गढ़ भी नहीं सकते। गढ़ेंगे तो भी हजारों साल लग जायेंगे फिर भी बात नहीं बन पायेगी।
बाजार ने हेल्थ सेन्टर खोल दिए। पार्लर खोल दिए। हसीन बनाने के लिए। आप देखिए-अपनी देव प्रतिमाएँ, उनका सौन्दर्य निहारिए। हजारों सालों से बन रही हैं। उनकी आँखों में आँख नहीं डाल सकते। माटी का सौन्दर्य-इतनी ऊर्जा से भरा हुआ है! किसी माई के लाल में हिम्मत हो तो माँ दुर्गा जैसी सूरत बनाकर दिखाए-किसी पार्लर में, किसी हेल्थ सेन्टर में जाकर; नहीं हो सकता। क्योंकि असली सौन्दर्य यही है जो इन प्रतिमाओं में झलकता है। हैं तो ये मिथक ही। हमे ‘रूटीन’ बदलना होगा। संस्कार बदलना होगा, तब यह सौन्दर्य आएगा। हमारे त्यौहार भी यही कहते हैं - माटी से जुड़ो, सौन्दर्य स्वतः फूट पड़ेगा अंग-अंग से, पोर-पोर से। किसान मोटापे से नहीं मरता, मधुमेह से नहीं मरता। वह मरता है अपनों से जो उसे जड़ों से काट रहे हैं; जो उसे लिबास में पैबन्द की तरह मानते हैं।
हमारे उत्सव में माटी से जोड़ते हैं, धरती ही सब कुछ है। दीपावली की एक-एक चीज देखिए-रूई, खीलें, सरसों का तेल, माटी की मूरतें, माटी के जांता या जतोले और माटी की ही घंटियाँ। ध्यान से देखिए इन्हें; बड़ी अद्भुत चीजें हैं ये।
आज ‘ग्लोबल विलेज’ में हमारे ‘विलेज’ थकते नज़र आ रहे हैं। गाँव खोते जा रहे हैं। जो शहर आ गए हैं, वह गाँव जाना नहीं चाहते। जो गाँव में हैं उन्हें शहर लुभा रहा है। है न अजीब-सी बात। बच्चे धान की बालियाँ नहीं जानते, चने के खेत नहीं देखा है। खलिहान नहीं जानते। हो सकता है आने वाले दिनों में मिट्टी भी प्रयोगशालाओं देखें। फिर कैसा भारत होगा? पूरे कृषिकर्म और उसके आनन्द से वंचित। मै कहता हूँ खेत-खलिहान देखिए और उन्हें भी दिखाइए। खेत की मिट्टी को मुट्ठी में बन्द कर उसके स्पन्दन को महसूस करिए। हथेली में अंकुर फूटने जैसा अनुभव होगा। फसलों और ऋतुओं के साथ-साथ हमारे उत्सव आते हैं। पूरा भारत झूमता है, बिना किसी जाति, धर्म और पन्थ के विचार से। शहर में आये किसानों को शहरी कैसे देखता है, जैसे चिड़ियाघर में आया कोई नया जीव हो, कभी कौतूहलवश, तो कभी हिकारत से। फिर भी हमारा किसान मस्त मलंग रहता है।
रामसेतु के बहाने राम की चर्चा उठती रहती है। उनकी प्रासंगिकता और ऐतिहासिकता को लेकर ऐसी टिप्पणियाँ और सवाल आते रहते हैं, जिन्हे कभी किसी विदेशी ने नहीं किया और उठाया होगा। राम को हमारे समाज और देश से अलग करके देखा ही नही जा सकता। पूरी पूरी दुनिया में गाँवों से बड़ा महामानव शायद ही कोई हुआ हो-इधर के दिनों में। गाँधी ने भी राम को आत्मसात् किया; भले ही उनके अपने ‘राम’ रहे हों। वह यूँ ही नहीं। राम सिर्फ मिथक हैं, तो भी आचरणीय हैं, आदरणीय हैं, वह यूँ ही नहीं। मिथक हमें दृष्टि देते हैं। मिथक सामाजिक नियामक हैं। अपने नियामकों की अवहेलना करने वाला न देश रहता है न ही देश के वासी।
हमने बहुत विकास किया है। हमारे ऊध्र्वगामी विचारों ने हमें दुनिया में श्रेष्ठ घोषित किया। हमारी आध्यात्मिक चेतना ने हमें वहां तक पहुंचाया जहां कोई सोच भी नहीं सकता है। हमने आंख मूंदकर ध्यान और समाधि करके जो चीजे देखी वह दुनिया की बड़ी-बड़ी प्रयोगशालाएं अब सच मान रही हैं। हमने हजारों साल पहले पिंड और ब्रह्माण्ड के तादात्म्य को दुनिया के सामने रखा था-यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे। हमने ग्रहों की गणना और चाल वर्षों पहले गिन लिया था। फिर भी हम सुन्दर होते भारत को कहीं न कहीं से दागदार बना रहे हैं। कमजोर कर रहे हैं।
हम वैभव और यश अर्जित करें पर किस शर्त पर? यह सुविचारित ढंग से तय होना चाहिए। लक्ष्मी के आगमन का मार्ग और साधन कैसा होना चाहिए और उनका सदुपयोग हो तो कैसे? दीपावली पर चढ़ने वाली धान की खीलें, सरसों के तेल, दिये की बाती हमारी थाती हैं। इसे हमें आने वाली पीढ़ी को संदेश के रूप में हस्तान्तरित करना चाहिए, जिससे हमारे बच्चे हमारी परम्पराओं के साथ पल बढ़ सकें। उसकी उंगली था आगे बढ़े। संस्कारवान बने रह सकें। एक अंग्रेज होने से ज्यादा भारतीय होने की गरिमा उन्हें मुग्ध करती रहे। फिर भी यहां कुछ दाग हैं जिसे धोना होगा। तमाम विडंबनाओं के बावजूद हमने हमेशा यहीं माना उत्सव ही हमारी जाति है और आनन्द ही हमारा गोत्र। अन्त में, हम कामना कर सकते है कि पान के पत्तों पर लक्ष्मी, सिन्दूर लगाये दधि-दूर्वा के साथ लक्ष्मी-गणेश हों और उनके चारों ओर बिखरे हों धान की खीलें और बताशे। हम खुश हांे, राष्ट्र समुन्नत हो तभी आनन्द है। अनन्त आनन्द! शाश्वत् आनन्द!!

-अरुण सिंह
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Friday 22 June 2012

यह देश गुस्से में है दोस्तों !

सन 1979 में तरीका बाबू इस दुनिया को अलविदा कह गये। तरीका बाबू यानी नृपत नरायण सिंह यानी मेरे नाना जी। इधर वे बहुत याद आ रहे हैं। हालांकि वे याद करने के लायक कभी नहीं रहे, फिर भी याद आते हंै। अपनी मौत के समय वे यही कोई 80 वर्ष के आसपास रहे होंगे। अपने अन्तिम समय में लोग कहते हैं कि वो पागल हो गये थे। जंगलों से सूखी लकडि़याँ बीनने लगे थे। यह उनकी नियति थी और शायद उनका कर्म भी। मैंने जब आखिरी बार उन्हें देखा था वे एकदम जपला हो गये थे। फिर भी उनके चेहरे पर जो कान्ति थी, जो चमक थी, जो लालिमा थी वह मेरी माँ और मामा को छोड़कर मैंने कभी किसी में नहीं देखी। नाना अपने समय के बेजोड़ बेइमानों में से थे जिसकी घोषणा वे खुद किया करते थे। उन्होंने अपने तरीके से जमीने ईजाद कीं। दारू के ठेके चलवाये और सरकारी महकमें में अपनी हनक कायम की। उनके सामने शायद ही उनका कोई विरोधी रहा हो जो लूटा-पिटा न हो। यूं तो अपने टक्कर में पूरे अम्बेडकर नगर जनपद में वे तीन लोगांे को ही बेइमान मानते थे और वे तब कहा करते थे कि इस इलाके में सिर्फ तीन बेइमान हैं, मेरे अलावा दो और। लेकिन उन्हें इसके बावजूद बेहद क्षोभ था कि आने वाले दिनों में हर इन्सान में निश्चित रूप से एक बेइमान जरूर होगा। कम से कम अपनी बहुलता के साथ। नाना पक्के सामंती थे। 30-32 हलों की खेती थी। और सैकड़ों गाय, भैसे उनके पशुशाला में थीं। तमाम अपनी जिद्दों और ज्यादतियों के बावजूद उनमें एक ऐसा गुण था कि जिसके नाते मैं उन्हें अक्सर याद करता हूँ। वे गाँव में हुई किसी भी मौत पर मातमपुर्सी करने जरूर जाते थे। इतना ही नहीं, बिना जाति, धर्म और सम्प्रदाय का भेद किये वे शव को अपना कंधा जरूर देते थे और गाँव के सरहद तक पहुंचाने में उन्होंने न अपना अहंकार आड़े आने दिया और न ही अपनी जाति।
लगभग तीन दशकों में नाना ने जो कहा था, वह अक्षरशः सच हुआ। पूरा देश उस सच्चाई से रूबरू हो रहा है। तब मैंने किसी को भी नाना जैसों के प्रति इतने गुस्से से भरा नहीं पाया था जितना कि आज। पूरी व्यवस्था से हम इस कदर क्षुब्ध और क्रोधित हैं कि हमारी नसें पिघलने लगती हैं। हमारा रक्तसंचार बढ़ जाता है। और हम अनायास ही बेबात झगड़ पड़ते हैं। यह गुस्सा आखिर आया कहा से! इसका जवाब बहुतों के पास होगा जरूर। पर अधिकांश लोगों ने उस आयाम को एकदम नजरअंदाज किया जहां से हम देखना चाहते हैं। हम लगातार पूरी व्यवस्था को गाली देते हंै। उलाहना देते हंै। उन्हें चोर और भ्रष्टाचारी कुछ भी कह देते हैं। यह कुण्ठा जायज है और होना भी चाहिये। कोई देश, कोई समाज, कोई व्यक्ति जब कुण्ठा का सकारात्मक प्रयोग करता है तो बदलाव का प्रतीक बन जाता है और तभी बदलाव होता भी है। पर क्या ऐसा है। इसे भी समझना होगा। हम अक्सर बातचीत में यह सुनते हैं कि आखिर करें क्या। क्या यूं ही मरते रहंे। क्या यूँ ही लुटते रहें या यूँ लुटाते रहें। तो भाई! समस्या तो ये आप ही की पैदा की हुई है और आप ही इससे उबर पायेंगे। इसके लिये ना तो अमेरिका आयेगा और न ही पाकिस्तान। इसके लिये हमें अपने घरों से शुरुआत करनी होगी। आखिर ऐसी स्थिति आई क्यों और कैसे ! कार्य-कारण को समझने की कोशिश हुई क्या। आखिर देश के लूटने वाले भी यहीं के हंै ना। जनता अक्सर पूछती है कि हम लूटने वाले का कुछ बिगाड़ क्यों नहीं पाते हैं। मैं उन्हें धैर्यपूर्वक समझाना चाहता हूँ कि आखिर हम किसी के बिगाड़ने की सोचे ही क्यों।
ऐसा लगता है कि हम बना नहीं पाये इसलिए सब बिगड़ गया। हम एक अच्छा नागरिक पैदा नहीं कर पाये। आप सड़क पर चलिये आपके मुँह पर मसाले की पीकें थूक देंगे। आप ट्रेनों में चलिये आपको रगड़ डालेंगे। आप अपना पर्स किसी दूकान पर भूल जाइये फिर आप उससे पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पायेंगे। आप ट्रेनों में देखिए कितने लोग टिकट लेकर चलते हंै। ये आखिर करता कौन है ? और जिस नेतृत्व को हम गाली देते हंै वह आता कहाँ से है। जिनके बच्चे लफंगे होते हैं उन्हें राजनीति में भेज देते हैं। जो जीनियस हैं वे डाॅक्टर, या नौकरशाह बनते हैं या फिर किसी बड़े बनिये के यहाँ नौकरी कर लेते हैं। उन्हें कहाँ फुरसत है कि वे देश देखंे और समाज देखें। वे तो अलसुबह नौकरी पर निकल जाते हैं और जब लौटते हैं तब तक लाला उनका पूरा खून ले चुका होता है। तो कमाइये न पैसा। और करिये गुस्सा। देश के दिल तक कितने लोग जा पाये और इसके लिये हमने क्या किया। एक सशक्त राष्ट्र के लिये उन्नत नस्ल के नागरिकों का होना पहली शर्त है। शारीरिक रूप से और मानसिक रूप से मजबूत। केचुएं तो फिर यही करेंगे जो हो रहा है। लोगों से एक बात पूछता हूँ कि हम गमले में एक पौध रोपते हैं कितनी तैयारी करते हैं। उसके लिये खाद, पानी और उचित मात्रा में प्रकाश की व्यवस्था। बिना इसके चल नहीं सकता और हम ये सब करते हंै। लेकिन एक बच्चा पैदा करने के लिये हम कितनी तैयारी करते हैं। कोई इसे बतायेगा। मुझे तो लगता है निन्यानवे फीसदी पैदाइश यूँ ही हो जाती है। अनचाहे ढंग से। ऐसे से हम क्या उम्मीद कर सकते हैं। इसी तरह हमारा नेतृत्व भी अनचाहे ढंग से पैदा हो जाता है। और हम कहते हैं कि यह देश लुट रहा है। बर्बाद हो रहा है। हमारे बच्चों को मिट्टी न लगने पाये। वे तो अब माटी के मायने भी भुलने लगे हैं तो देश और इस धरती से कितना जुड़ सकेंगे और यही नस्ल तो संसद तक जायेगी। यही नस्ल तो कानून बनाती है। और यही नस्ल तो लुटती और लुटाती भी है। तो हम गुस्सा किस पर करते हैं। अपनी शिक्षा पद्धति में देश कहाँ है! आप किसी कान्वेन्ट के सिलेबस को देखिये। मैकाले तो यहीं चाहता था ना। और हम आप उसके सपनों का हिस्सा बन रहे हंै। हमारे सपने कहीं बहुत दूर पीछे छूट गये। एक बार मैकाले ने अपनी ब्रिटिश संसद में कहा था, “मैंने पूरे भारतवर्ष को देखा और समझा है। मैंने सुदूर क्षेत्रों का दौरा किया है लेकिन मुझे यहां एक भी आदमी ऐसा नहीं मिला जो चोर हो, बेरोजगार हो अथवा बेइमान हो।“ लेकिन उसी मैकाले ने भारतीय विधान में ऐसा उलट फेर किया कि आज नाना का वह कथन अक्षरशः सुनाई देने लगता है। यह अंग्रेज भी जानते थे कि किसी भी राष्ट्र पर कब्जेदारी की पहली शर्त है कि उसके मस्तिष्क पर कब्जा कर लिया जाये। और हमारा मस्तिष्क हमारे अपने कब्जे से बाहर हो गया है । उसी मैकाले ने अपनी सफलता पर अपने पिता को लिखी एक चिट्ठी में कहा था कि मैंने भारत को इतना बदल दिया है कि यहां आने वाली नस्ले शारीरिक रूप से भले भारतीय हों लेकिन मानसिक रूप से वे पूरे के पूरे अंग्रेज होंगे।“
हम यह दावे के साथ कह सकते हैं कि जबतक हमारा नैतिक पराभव नहीं हुआ था तब तक हम सीना तान कर खड़े थे। अंग्रेजों ने यही तो किया-हमारा चारित्रिक पतन। उन्हें पता था इस कि देश की गुलामी के लिये इसके किसानों और युवाओं को कमजोर तथा पतित किया जाये। सो, वहीं किया। यह कम लोगों को जानकारी होगी कि आजादी की पहली लड़ाई के लिये किसानों ने तब करोड़ों रुपये क्रान्तिकारियों के लिये यूं ही दे दिये थे। तो जाहिर है कि हमारा किसान तब कितना मजबूत रहा होगा। इसे अंग्रेजों ने समझा और शुरू कर दिया किसानों को बर्बाद करना। भूमि अधिग्रहण और करों की भरमार से किसान कमर के बल झुकता चला गया। युवाओं के लिये उसने मदिरालय बना दिये और अंग्रेजी दां स्कूलों के डिब्बे खड़े कर दिये। जहां से वे ‘माई’ और ‘बाब’ू की जगह डैड और माॅम कह सकें। उन्हीं की तर्ज पर आज बिल्डरों की एक बड़ी खेप किसानों की जमीन औने-पौने दामों में खरीद रही है और उन्हीं किसानों को फिर अपने यहाँ गार्ड या नौकरों के रूप में उपकृत कर नौकरी दे रही है। यह बात क्यों नहीं समझ में आती है। लाख दो लाख रुपये बीघे की जमीन पर करोड़ांे का वारा-न्यारा होता है।
अगर हम चाहते हैं कि देश का गुस्सा कम हो तो हम सबको पहल करनी होगी। वह भी आज से और अभी से। सबसे पहले उन्नत नस्ल। और उनका उचित नागर एवं सैन्य प्रशिक्षण। किसी भी फौजी को देखिये, उससे मिलिये। देश के प्रति उसमें भरी आग तब समझ में आयेगी। और जब तक यह आग देश के हर कोने में और हर दिल में नहीं उठेगी तब तक न तो बदलाव हो सकता है और न तो देश सुधर सकता है और न ही हमारा गुस्सा थम सकता है। मुझे इकबाल की वो लाइनें दोहराने में कोई संकोच नहीं है जिसने तब भी हिन्दुस्तान को आगाह किया था और जो आज भी मौजूं है, ”वतन की फिक्र कर नादां, कयामत आने वाली है/ तुम्हारी बर्बादियों के किस्से हैं आसमानों में, न सम्भलोंगे तो मिट जाओगे/ तुम्हारी दास्तां तक न होगी दास्तानों में। ’’ तो दोस्तों आज देश बेहद गुस्से में है! इसे समझिये। बिना संस्कार और संवेदना के एक सशक्त राष्ट्र का निर्माण हो ही नहीं सकता। और यदि इसे हम आज से ही शुरू करे तो कम से कम पच्चीस साल लगेंगे। आइये अपने भारत का निर्माण करें।

Wednesday 21 March 2012

‘जूनियर लोहिया’ की ताजपोशी


अरुण सिंह

कहा जा सकता है कि कुछ युवराज महलों में पैदा होते हैं। कुछ प्रबंधन के परिणाम होते हैं। लेकिन कुछ ही होते हैं जो कल्पनाओं में जन्मते हैं जो इतिहास के ढेर और उम्मीदों से परे होते हैं। अखिलेश को इनमें से किस श्रेणी में रखा जाए यह तय कर पाना मुश्किल है। आप अपने लिहाज से इसे तय कर सकते हैं।
उम्मीदों के उलट एक सीधी और सपाट पटकथा लिखी गई यूपी को कहीं कोई उलझाव नहीं। कहीं किसी-तिकड़म से वास्ता नहीं। ना खरीद, ना फरोख्त। बस सरकार बनाइए और शुरू हो जाइए।
सनातनी समाजवादी ढाँचे से निकल कर हाईटेक की दुनिया का समाजवाद, अब से मात्र एक दशक पूर्व सोचा भी नहीं जा सकता था। ‘विचारों से पिछड़े’ करार देकर लोग या तो आगे बढ़ जाते थे या फिर किसी घोर बहस में उलझ जाते।
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को ताजे विधानसभा चुनाव में 224 का जादुई आकड़ा मिलने पर यह टिप्पणियाँ आनी ही चाहिए कि समाजवाद का चेहरा बदल रहा है। पर ऐसा बदलाव ला पाना कितना कठिन रहा होगा इसे तो सिर्फ अखिलेश यादव और उनकी टीम ही बता सकती है। शुरुआत के दिनों में तो राहुल की आभामंडल के आगे मीडिया ने भी उन्हें तवज्जो तक नहीं दी।
अपने क्रांतिरथ से यूपी को 8000 किमी की लंबाई में मथने और 250 किमी की साइकिल यात्रा के दौरान पैडल मारकर पसीने लथपथ अखिलेश ने साबित कर दिया कि इस चुनावी लड़ाई में सत्ताधारी बसपा को असल चुनौती वही देंगे।
अखिलेश के लिए यह चुनाव सिर्फ सीटों और सरकार बनाकर चलाने भर का नहीं था। यह चुनाव था नये जामे में समाजवाद को लाकर खड़ा करके उसकी स्वीकार्यता को साबित करने का, जहाँ पीढ़ियों का फासला साफ दिखाई देता है। यह फासला स्वयं मुलायम सिंह यादव और अखिलेश में भी आसानी से देखा जा सकता है। ठीक उसी तरह जिस तरह लोहिया और मुलायम में।
यह चुनाव था दिग्गजों और वरिष्ठों के बीच एक सटीक रास्ता बनाकर आगे निकल जाने का। और यह चुनाव था कच्चे कंधों पर चढ़कर ऊपर जाने का और यह अपने उन साथियों पर भरोसा करने का भी चुनाव था जो राजनीति की ‘अधपकी बालियाँ’ सरीखीं थीं-यानि अखिलेश की युवा टीम।
‘जिन्दा कौमों’ का इतिहास-लेखन आसान नहीं होता, ये लम्बे समय तक इन्तजार नहीं करती हैं। और इतिहास बनाना भी आसान नहीं होता क्योंकि प्रतिगामी शक्तियाँ ऐसा कदापि नहीं करने देती हैं। 14 नवम्बर 2011 को जवाहरलाल नेहरू की पारम्परिक सीट फूलपुर (इलाहाबाद) में एक विशाल जनसभा होनी थी। ‘कांग्रेस के युवराज’ राहुल गाँधी अपने चुनावी अभियान का फस्र्ट शो शुरू करने वाले थे तब सपाइयों ने उनका राजनैतिक विरोध किया और उन पर टूट पड़े अंगरक्षकों के साथ कांग्रेस के बड़े नेता व मंत्री। तब पिट रहे ‘कथित सपाई गुण्ड़ों’ और पीट रहे ‘कथित कांग्रेसी शरीफों’ को भी यह एहसास नहीं रहा होगा कि कहानी एकदम बदल जाएगी। आप ‘यहाँ पीट रहे हैं’ हम वहाँ ‘सियासत’ में पीट देंगे। उल्लेखनीय है कि कभी इसी सीट से लोहिया भी जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ चुनाव लड़े थे।
‘राहुल-राज’ आते-आते बहुत पीछे छूट गया। ना करिश्मा काम आया और ना ही विरासत ने मदद की। 38 वर्षीय अखिलेश अपने से वरिष्ठ राहुल गाँधी के उलट अपना अंदाज बेहद ‘सॅाफ्ट’ रखा जबकि समाजवादियों के लिए यह सोच पाना भी कठिन है। बात-बात पर ‘हल्लाबोल’ देने वाले सपाइयों को ‘आईपाॅड’ और फेसबुक-संस्कृति से जोड़ना पुराने समाजवादियों के लिए नामुमकिन था।
नये बदलाव को लेकर अखिलेश अपने एक साक्षात्कार में कहते हैं,‘‘जब मुझे पार्टी की जिम्मेदारी दी गयी थी (2009 मंे) तभी मैंने ये सुनिश्चित कर लिया था कि जहाँ भी हो सके हम तकनीकि का इस्तेमाल करें। कांग्रेस हमारा मखौल उड़ाती रही है कि हम अंग्रेजी और कम्प्यूटरों के खिलाफ हैं। कांग्रेस कहती है कम्प्यूटर अंग्रेजी में होने चाहिए, मैं कहता हूँ कम्प्यूटर हिन्दी और उर्दू में होने चाहिए।’’
विचारधारा के स्तर पर बचाव और बदलाव अखिलेश ने सीख लिया है। वे तकनीकि बदलाव को विचारधारा के बदलाव के रूप में नहीं देखते। उनको यह कहते हुए सुनकर नई पीढ़ी के समाजवादियों को सुखद लगता है कि हम तकनीकि के खिलाफ नहीं हैं बल्कि हम ऐसी तकनीकि के खिलाफ हैं जो बेरोजगारी बढ़ाती हो।
उनके लिविंग रूम में अमेरिकी राॅक बैण्ड गन्स एण्ड रोसेज, वाॅन जोवी, मेटेलिक बैण्ड मैटालिका, कनाडाई राॅक सिंगर ब्रायन ऐडम्स और जार्ज माइकल के एल्बम अगर खूबसूरती के साथ मिलते हैं तो वे साइकिल चलाना और तल्खी के बजाय मीठी आवाज में जवाब देना भी नहीं भूलते। तभी तो बेनी प्रसाद वर्मा, अमरसिंह और दिग्विजय सिंह जैसे बड़बोले जैसे नेताओं को बहुत शालीनता से जवाब देते हैं। वे अपने को बच्चा कहने वाले को भी ‘चच्चा’ कहकर उनकी धार कुन्द कर देते हैं। यहाँ वे लोहिया की तरह आग्रही बन जाते हैं, दुराग्रही नहीं। बेशक वे मुलायम सिंह की तरह मिट्टी वाले अखाड़ों में न जाते हों लेकिन अपने धरतीपुत्र पिता मुलायम सिंह की ही तरह वे सेहत के प्रति सचेत भी रहते हैं और अपने घरेलू जिम से ही सुबह की शुरुआत करते हैं। वे फुटबाॅल खेलते हैं लेकिन अपनी लम्बी यात्राओं में चुनावी अभियानों, सार्वजनिक और निजी संवादों में वे समाजवाद को हमेशा जिन्दा रखना नहीं भूलते। वे लोहिया और उनके दोनों शिष्यों, मुलायम सिंह तथा जनेश्वर मिश्रा जैसे ‘छोटे लोहियों’ से ऊर्जा लेकर अब खुद को ‘जूनियर लोहिया’ में ढाल रहे हैं। सिर पर लाल टोपी पहने वे अब यह तो कह ही सकते हैं कि अब यह वक्त हमारा है।
स्व.जनेश्वर मिश्रा ने ही राजनीति की नर्सरी में अखिलेश को सपा के युवा इकाई की बागडोर को देकर रोपने का काम किया था ताकि वे अपनी उम्र के समाजवादियों के साथ पलें, बढ़ें और उन्हें समझें। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जनेश्वर मिश्रा का यह प्रयोग काफी हद तक सफल हुआ। अखिलेश आज की ताजा पीढ़ी को लैपटाॅप और टैबलेट पीसी जैसी आधुनिक तकनीकि से करने के पक्षधर हैं। समाजवाद का प्रगतिशील चेहरा बनकर उभरे अखिलेश के सामने चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं, उम्मीद की जानी चाहिए कि इन सबसे वे आसानी से निपट लेंगे, जैसे ताजा विधानसभा चुनाव में अपने सियासी विरोधियों से निपट लिया।
डाॅ0 लोहिया ने फूलपुर में नेहरू से हारने के बाद एक वक्तव्य में कहा था, ‘‘आज मेरे पास कुछ नहीं है। सिवाय इसके कि हिन्दुस्तान के साधारण और गरीब लोग सोचते हैं कि शायद मैं उनका आदमी हूँ। इसी नाम को लेकर मुझे पुरानी चट्टानों से टकराना है। कोई भी चट्टान हो, इस टकराने से वह थोड़ा सा जरूर चटकेगी लेकिन अभी ऐसी हालत नहीं है कि यह या वह चट्टान तोड़ी जा सके।’’ लेकिन अखिलेश के लिए हालात ऐसे नहीं हैं। डाॅ0 लोहिया तो ‘राजनीति के पराजित योद्धा’ थे जबकि ‘आज का वक्त अखिलेश का है।’

मनोज: फ़ुरसत में ... स्मृति से साक्षात्कार

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